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कविता

थोड़ा सुस्ता लो इस कालीन पर

आरती


इनके पास किस्से कहानियों के
थान दर थान हैं
एक एक रेशा चुनकर रखती हैं
एक एक रंग करीने से सजाती हैं
अपनी दुनिया की देह पर उगे
खरपतवारों को बीन बीनकर
बुनती हैं मखमली कालीन
और निश्चिंत सो जाती हैं
कुछ पल चुरा छिपाकर
कुछ कतरनें इस थान की, कुछ उसकी
बिखेरती आसपास
चलते फिरते खिलाते खाते
सोते जागते हुए भी
मस्त रहती हैं अपनी बनाई दुनिया के
सपनीले कारखाने में
ये स्त्रियाँ, बेजतन नींद लेने वाली
कोई भी हो सकती हैं
मेरी दादी नानी तुम्हारी भी
इसकी... उसकी... शायद सबकी
तुम झरोखों से झाँककर
कभी कभार इनका चेहरा
अनसुना करके विरह विहाग
बिना सहलाए इस कालीन के नरम रोएँ
फरमान जैसा जारी नहीं कर सकते
कि यहाँ सब रीता-रीता है
तुम्हारी नींद गिरवी है कवि
किताबों की जिल्द में
तुम खोजो, सफेद पन्नों में काली स्याही
नींद के अंतरंग कोने और नुस्खे
जानने की खातिर
तुम्हें सुस्ताना होगा
उनके बुने मखमली कालीन पर
और बेरंग पन्ने अपनी किताबों के
रंगने होंगे उनकी किस्सागोई से


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